Saturday 16 April 2016

"डोर"  DoaR

चंद घंटे बांटने से सुलझ जाती हैं जो, मैं हूँ उन उलझनों का तोड़,
भटकते बचपन को राह दिखाती है जो, मैं हूँ शिक्षा का वो मोड़,
सताती है मासूम भोली ज़िंदगियों को जो, मैं हूँ उन तकलीफों का चोर,
बिखरती उम्मीदों को बांधे रखा है जिसने, मैं हूँ संवेदनाओ की वो डोर।

मुसीबतो के वज्रपात से जन्मा हूँ मैं, मैं हूँ आत्मशक्ति की गर्जन घनघोर,
मासूमो को तिरस्कार से तड़पते देख उठती है जो, मैं हूँ रूह की वो झकझोर,
आती हूँ निराशाओं की अँधेरी रात के बाद, मैं हूँ उजली आशाओ की भोर,
बंधी है मासूम मुस्कानों की ताबीज़ जिसमे, मैं हूँ दुआओं की वो डोर।

बेजान आँखों में चमक देखनी है मुझे, मैं हूँ निरन्तर इसी भावना से विभोर,
पंख फैलाए झूमता है परोपकार की वर्षा में जो, मैं हूँ संतुष्टि का वो मोर,
सुनना नहीं चाहती ये दुनिया मुझे, मैं हूँ सहस्त्र उपेक्षित स्वरों का शोर,
बेबस आँखों ने पिरोये हैं सपनो के मोती जिसमे, मैं हूँ संभावनाओं की वो डोर।

मानवता के निर्बल पुल को सम्भाले रखा है मैंने, मैं हूँ आस्था और करूणा का जोड़,
तकलीफों के तूफ़ान नहीं हरा पाये जिन दिलो को, मैं हूँ उन अपराजितो का ज़ोर,
खुशियों की कश्ती को बाँधा है लाचारी के समंदर में, मैं हूँ निष्ठा की लंगर का छोर,
मुफ़लिसी के आसमान में उड़ाई है ख्वाहिशो की पतंगे जिसने, मैं हूँ हौसलों की वो डोर।

                                                                -विवेक टिबड़ेवाल

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